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आँखों में एक बार उभरने की देर थी
फिर आँसुओं ने आप ही रस्ते बना लिए
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
पहन लेता हूँ जब दस्तार* तो सर भूल जाता हूँ
( दस्तार* – पगड़ी)
मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
अँधेरों में मुझे इक रौशनी महसूस होती है
हर तरफ़ थी ख़ामोशी और ऐसी ख़ामोशी
रात अपने साए से हम भी डर के रोए थे
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
मीलों मिरी तलाश में रस्ता निकल गया
– भारत भूषण पन्त
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