मधुकलश – हरिवंशराय ‘बच्चन’

मधुकलश – हरिवंशराय ‘बच्चन’

है आज भरा जीवन मुझमे,
है आज भरी मेरी गागर!

सर में जीवन है, इससे ही
वह लहराता रहता प्रति पल,
सरिता में जीवन, इससे ही
वह गाती जाती है कल-कल

निर्झर में जीवन, इससे ही
वह झर-झर झरता रहता है,

जीवन ही देता रहता है
नाद को द्रुत गति, नद को हलचल ,
लहरे उठतीं, लहरें गिरतीं,
लहरें बढ़तीं, लहरें हटतीं;
जीवन से चंचल हैँ लहरें,
जीवन से अस्थिर है सागर।

है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!

नभ का जीवन प्रति रजनी में
कर उठता है जगमग-जगमग
जलकर तारक-दल -दीपों में;
सज निमल का प्रासाद सुभग ,

दिन में पट रंग-बिरंगे औ’
सतरंगे बनकर टन ढँकता,

प्रातः सायं कलरव करता
बन चंचल-पर दल के दल खग,
प्रावृट में विद्युत में हँसता ,
करती है व्यक्त धरा जीवन,

है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर!

मारुत का जीवन बहता है
गिरि -कानन पर करता हर-हर
तरुवर -लतिका ओं का जीवन
कर उठता है मर्मर् -मर्मर्

पल्लव का, पर बन अंबर में
उड़ जाने की इच्छा करता,

शाखाओं का, झूमा आ करता
दाएँ-बाएँ नीचे-ऊपर ,

तृण शिशु, जिनका हो पाया है
अब तक मुखरित कल कंठ नहीं,
दिखला देते अपना जीवन
फ़डका अपने अनजान अधर।
है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर !

जल में, थल में, नभमंडल में
है जीवन की धार बहती,
संसृति के फूल-किनारों को
प्रतिक्षण सिंचित करती रहती,

इस धारा के तट पर ही है
मेरी यह सुंदर-सी बस्ती-

सुंदरी-सी नगरी जिसको है
सब दुनिया मधुशाला कहती;

मैं हूँ नगरी की रानी,
इसकी देवी, इसकी प्रतिमा,
इससे मेरा संबंध अटल,
इससे मेरा संबंध अमर !

है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर !

पल डयोढी पर, पल आँगन में,
पल छज्जों और झरोखों पर
में क्यों न रहूँ जब आने को
मेरे मधु के प्रेमी सुंदर,

जब खोज किसी को हों करते
दृग दूर क्षितिज पर ओर सभी,

किस विधि से मैं गंभीर बनू
अपने नयनों को नीचे कर,

मरु की नीरवता का अभिनय
मैं कर ही कैसे सकती हूँ,
जब निष्कारण ही आज रहे
मुस्कान-हँसी के निर्झर झर

है आज भरा जीवन मुझमें,
है आज भरी मेरी गागर !

मधुकलश – हरिवंशराय ‘बच्चन’

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