पहाड़ों के कदों की खाइयाँ हैँ,
बुलन्दी पर बहुत नीचाइयाँ हैँ।
है ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम,
की लोग अपनी ही खुद परछाइयाँ हैँ।
गले मिलिए तो कट जाती हैँ जेबें,
बड़ी उथली यहाँ गहराइयाँ हैँ।
हवा बिजली के पंखे बांटते हैँ,
मुलाजिम झूठ की सच्चाइयाँ हैँ।
बिके पानी समन्दर के किनारे,
हकीकत पर्वतों की रानाइयाँ हैँ।
गगन-छूते मकां भी, झोंपड़े भी,
अजब इस शहर् की रानाइयाँ हैँ।
दिलों के बात ओंठों तक न आएं,
कसी यूँ गर्दनों पर टाइयाँ हैँ।
नगर की बिल्डिंगों बाहों की सूरत,
बशर टूटी हुई अंगड़ाइयाँ हैँ।
जिधर देखो उधर पछुआ का जादू,
सलीबों पर चढ़ीं पूर्वाइयाँ हैँ।
नई तहजीब ने ये गुल खिलाये,
घरों से लापता अँगनाइयाँ हैँ।
यहाँ रद्दी में बिक जाते हैँ शाइर,
गगन ने छोड़ दीं ऊँचाइयाँ हैँ।
कथा हर जिंदगी की द्रौपदी-सी,
बड़ी इज्जत भरी रुस्वाइयाँ हैँ ।
जो गालिब आज होते तो समझते
ग़ज़ल कहने में क्या कठिनाईयाँ हैँ।
सूर्यभानु गुप्त