क्या क्या ज़ुल्म न ढाया लोगों ने

हम को दिवाना जान के क्या क्या ज़ुल्म न ढाया लोगों ने
दीन छुड़ाया धर्म छुड़ाया देस छुड़ाया लोगों ने

तेरी गली में आ निकले थे दोश हमारा इतना था
पत्थर मारे तोहमत बाँधी ऐब लगाया लोगों ने

तेरी लटों में सो लेते थे बे-घर आशिक़ बे-घर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने

नूर-ए-सहर ने निकहत-ए-गुल ने रंग-ए-शफ़क़ ने कह दी बात
कितना कितना मेरी ज़बाँ पर क़ुफ़्ल लगाया लोगों ने

‘मीर-तक़ी’ के रंग का ग़ाज़ा रू-ए-ग़ज़ल पर आ न सका
‘कैफ़’ हमारे ‘मीर-तक़ी’ का रंग उड़ाया लोगों ने

-कैफ़ भोपाली

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