जो बात है हद से बढ़ गयी है
वाएज़ के भी कितनी चढ़ गई है
हम तो ये कहेंगे तेरी शोख़ी
दबने से कुछ और बढ़ गई है
हर शय ब-नसीमे-लम्से-नाज़ुक
बर्गे-गुले-तर से बढ़ गयी है
जब-जब वो नज़र उठी मेरे सर
लाखों इल्ज़ाम मढ़ गयी है
तुझ पर जो पड़ी है इत्तफ़ाक़न
हर आँख दुरूद पढ़ गयी है
सुनते हैं कि पेंचो-ख़म निकल कर
उस ज़ुल्फ़ की रात बढ़ गयी है
जब-जब आया है नाम मेरा
उसकी तेवरी-सी चढ़ गयी है
अब मुफ़्त न देंगे दिल हम अपना
हर चीज़ की क़द्र बढ़ गयी है
जब मुझसे मिली ‘फ़िराक’ वो आँख
हर बार इक बात गढ़ गयी है