राजेश रेड्डी
इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँहर साँस को मैं, बनकर सुक़रात, बरतता हूँ खुलते भी भला कैसे आँसू मेरे औरों परहँस-हँस के जो मैं अपने हालात बरतता हूँ कंजूस कोई जैसे गिनता रहे सिक्कों कोऐसे ही मैं यादों के लम्हात बरतता हूँ मिलते रहे दुनिया से जो ज़ख्म मेरे दिल कोउनको भी समझकर … Read more