राजेश रेड्डी

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मोड़ कर अपने अंदर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या
जान कर भी कि ये सब हक़ीक़त नहीं, झूटी-मूटी कहानी के हो जाएँ क्या

कब तलक बैठे दरिया किनारे यूँ ही, फिक्र दरिया के बारे में करते रहें
डाल कर अपनी कश्ती किसी मौज पर, हम भी उसकी रवानी के हो जाएँ क्या

सोचते हैं कि हम अपने हालात से, कब तलक यूँही तकरार करते रहें
हँसके सह जाएँ क्या वक्त का हर सितम, वक्त की मेहरबानी के हो जाएँ क्या

ज़िंदगी वो जो ख़्वाबों-ख़्यालों में है, वो तो शायद मयस्सर न होगी कभी
ये जो लिक्खी हुई इन लकीरों में है, अब इसी ज़िंदगानी के हो जाएँ क्या

हमने ख़ुदके मआनी निकाले वही, जो समझती रही है ये दुनिया हमें
आईने में मआनी मगर और हैं, आईने के मआनी के हो जाएँ क्या

हमने सारे समुंदर तो सर कर लिए, उनके सारे ख़ज़ाने भी हाथ आ चुके
अब ज़रा अपने अंदर का रुख़ करके हम, दूर तक गहरे पानी के हो जाएँ क्या

राजेश रेड्डी

आज के ग़ज़लकारों में राजेश रेड्डी का नाम सबसे अलग पड़ता है क्योंकि ग़ज़लें देखनी पड़ती हैं। ग़ज़लों और ग़ज़लकारों की जैसी जरख़ेज़ फ़सल लहलहा रही है, उसमें हम किसी ग़ज़लकार के बारे में इससे बड़ी बात क्या कह सकते हैं। ‘वजूद’ उनकी ग़ज़लों का तीसरा संग्रह है। इस अन्तराल में राजेश पहले से ज़्यादा आत्मविश्वासी हुए हैं और शब्दों और परिस्थितियों के अन्तःसम्बन्धों को पकड़ते वक़्त उन्हें थोड़ी भी हिचक नहीं होती है। राजेश बला के ख़ामोश ग़ज़लगो हैं। वे बमुश्किल ही मुँह खोलते हैं। जितना और जो भी कहना होता है, ग़ज़ल को ही सौंप देते हैं।

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