सद्यःस्नाता

पानी
छूता है उसे
उसकी त्वचा के उजास को
उसके अंगों की प्रभा को –

पानी
ढलकता है उसकी
उपत्यकाओं शिखरों में से –

पानी
उसे घेरता है
चूमता है

पानी सकुचाता
लजाता
गरमाता है
पानी बावरा हो जाता है

पानी के मन में
उसके तन के
अनेक संस्मरण हैं।

अशोक वाजपेयी 


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