इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का
लहरा-लहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देतीं मन का,
कल मुरझानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं, मग्न रहो,
बुल बुल तरु की फुनगी पर से
संदेह सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहाल देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा।
इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
हरिवंशराय बच्चन