चित्रांश खरे

हमारे सब्र का इक इम्तिहान बाक़ी है

हमारे सब्र का इक इम्तिहान बाक़ी है
इसी लिए तो अभी तक ये जान बाक़ी है

वो नफ़रतों की इमारत भी गिर गई देखो
मोहब्बतों का ये कच्चा मकान बाक़ी है

मिरा उसूल है ग़ज़लों में सच बयाँ करना
मैं मर गया तो मिरा ख़ानदान बाक़ी है

मैं चाँद पर हूँ मगर मुतमइन नहीं हूँ मैं
मिरे परों में अभी भी उड़ान बाक़ी है

मिटा दो जिस्म से मेरी निशानियाँ लेकिन
तुम्हारी रूह पे मेरा निशान बाक़ी है

तुम्हें तो सच को उगलने की थी बड़ी आदत
तुम्हारे मुँह में अभी तक ज़बान बाक़ी है

हमारी मौत को बरसों गुज़र गए लेकिन
बदन का ख़ाक से अब तक मिलान बाक़ी है

चित्रांश खरे

Leave a Comment

error: Content is protected !!