मौसम गुज़र गया – नीरज

मैं जिस मौसम का राजा था
वो तो मौसम गुज़र गया
पता नहीं वो जाने वाला
इधर गया या उधर गया ।।

आई ऐसी नींद सुनहरी
आँखें खोले सोये हम ,
रोना था तब हँसे स्वयं पर
हँसना था तब रोये हम ,
इसी एक उलझन में जीवन
कुछ बिगड़ा, कुछ सँवर गया ।
पता नहीं वो जाने वाला
इधर गया या उधर गया । ।

राही बदला, मंज़िल बदली
रस्ता और सफ़र बदला
आँसू तो मोती निकला
और मोती इक पत्थर निकला
भेद खुला ये तब जब अपना
सारा वैभवबिखर गया ।
पता नहीं वो जाने वाला
इधर गया या उधर गया ।।

सुबह गई वो शाम गई वो
रात गई वो रस – भीनी
पास बची तो सिर्फ़ बची है
चादर इक झीनी- झीनी
रूप उमर का एक नशे की
तरह चढ़ा फिर उतर गया ।

पता नहीं वो जाने वाला
इधर गया या उधर गया । ।

चाक समय का , घट माटी का
जो था , हम जीवन समझे
इक रंगीन तमाशा था जो
उसको हम यौवन समझे
बच्चा इक मेले में आकर
ख़ुद से हो बेख़बर गया ।
पता नहीं वो जाने वाला
इधर गया या उधर गया ।

गीत गये वो गंध गई वो
उड़ी सुरों की कोयल भी
चुरा ले गया काल नयन से
सपनों वाला काजल भी
खोज रहा हूँ आज अकेला
समय कहाँ वो किधर गया ।
पता नहीं वो जाने वाला
इधर गया या उधर गया । ।

नीरज

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