दो देहों के बीच

फ़िराक़ गोरखपुरी

इस बीच क्या कुछ नहीं उग आया दो देहों के बीच झाड़ झंखाड़ खर पतवार जंगली बेलें नाज़ुक लताएँ आदिम दीवारों से निकली गुप्त गुफाएँ अँधेरी घाटियों में भौंचक्की दिशाओं में सीढ़ियाँ उभर आईं कुछ ढूह कुंठाओं के टिके रहे जीभ पर अब फीके पड़े इन गाढ़े अँधेरों में ज़हर है सच पर यही है … Read more

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