ओशो

प्रेम तो सीढ़ी का नाम है…!

फिर इसके आगे
और सीढ़ियां हैं।
मगर वे सब
प्रेम से ही
उत्पन्न होती है।
तुम से मैंने कहा कि
प्रेम के ये चार रूप है—

स्नेह;
अपने से छोटे के प्रति हो,
बच्चे के प्रति।

प्रेम;
अपने से समान के प्रति हो,
मित्र के प्रति;
पति—पत्नी के प्रति।

श्रद्धा;
अपने से बड़े के प्रति हो,
मां के प्रति,
पिता के प्रति,
गुरु के प्रति।

और भक्ति;
परमात्मा के प्रति,
समग्र के प्रति।

ये सब प्रेम की ही धारणाएं हैं।
ये प्रेम के ही अलग—अलग ढंग हैं।
यह प्रेम का ही पूरा नृत्य है।
ये प्रेम की ही भावभगिमाए हैं।
मगर प्रेम को शुद्ध करते
चलो तो पीड़ा नहीं मिलेगी,
परम आनंद मिलेगा।
और इतने जल्दी थक मत जाओ,
इतने जल्दी हार मत जाओ,
इतने जल्दी बूढ़े मत हो जाओ।
इतने जल्दी हताश मत हो जाओ।

कैफी आजमी की ये कुछ पंक्तियां हैं।

तू खुर्शीद है बादलों में न छुप
तू महताब है जगमगाना न छोड़
तू शोखी है, शोखी रियायत न कर
तू बिजली है बिजली जलाना न छोड़
अभी इश्क ने हार मानी नहीं
अभी इश्क को आजमाना न छोड़

प्रेम हारता ही नहीं।
जब तक परमात्मा न मिल जाए,
प्रेम हार ही नहीं सकता।
प्रेम बीज है परमात्मा का।
अभी इश्क ने हार मानी नहीं
अभी इश्क को आजमाना न छोड़
तुम हार मान लिए हो,
यह तुम्हारे अहंकार की हार है,
यह प्रेम की हार नहीं है,
इसे तुम प्रेम की हार मत समझ लेना,
प्रेम हारता ही नहीं।
प्रेम हार जानता ही नहीं।
प्रेम तो जीत ही जानता है।
और जीतते—जीतते उसी दिन
पूर्णता को उपलब्ध होता है
जिस दिन परमात्मा
उपलब्ध हो जाता है।
तभी प्रेम विश्राम में जाता है।
उसके पहले तक प्रेम
विश्राम नहीं करता।

लेकिन अहंकार की
हार को अक्सर हम
प्रेम की हार मान लेते हैं।
तुम्हारा अहंकार जरूर
कष्ट में पड़ गया होगा।
तुमने कुछ गलत दिशाओं से
प्रेम तलाशा होगा।
तुमने गलत हाथों से
प्रेम पकड़ना चाहा होगा।
तुमने प्रेम को पिंजड़े में
बंद करना चाहा होगा।
तुमने प्रेम के साथ कुछ
दुर्व्यवहार किया होगा।
इसलिए तुम प्रेम को
पाने में असमर्थ हुए हो।
अपना दुर्व्यवहार छोड़ो,
अपनी गलतिया स्वीकारो,
अपनी गलतिया पहचानो,
अपनी गलतियां देखो,
और तब तुम चकित होओगे—
प्रेम अभी कहां हारा !!!!!

– ओशो
अथातो भक्‍ति जिज्ञासा
भाग–1~प्रवचन-16

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