मुमकिन है चन्द रोज़
परीशाँ रही हो तुम
यूँ भी हुआ हो , वक़्त पर सूरज उगा न हो
इमली में कोई अच्छा क़तारा पका न हो
छत की खुली हवाओं में आँचल उड़ा न हो
दो -तीन दिन रजाई में सर्दी रुकी न हो
कमरे की रात पंख पसारे उड़ी न हो
हँसने की बात पर भी ब – मुश्किल हँसी हो तुम
मुमकिन है चन्द रोज़ परीशाँ रही हो तुम
कुछ दिन खतों में आँसू बहे शोरो- गुल हुआ
तुम ज़हर पी के सोईं!
मैं इंजन से कट गया !
फिर यूँ हुआ कि धूप अब्र छंट गया
मैंने वतन से कोसों परे घर बसा लिया
तुमने पड़ोस में नया भाई बना लिया ।
निदा फ़ाज़ली