न सोच कोई, न शिकायत,
न विवाद कोई, न नींद।
न सूर्य की इच्छा, न चंद्रमा की,
न समुद्र की, न जहाज की।
महसूस नहीं होती गरमी
इन दीवारों के भीतर की,
दिखती नहीं हरियाली
बाहर के उद्यानों की।
इंतजार नहीं रहता अब
उन उपहारों का
जिन्हें पाने की पहले
रहती थी बहुत इच्छा।
न सुबह की खामोशी भाती है
न शाम को ट्रामों की सुरीली आवाज,
जी रही हूँ बिना देखे –
कैसा है वह दिन? कैसा है यह दिन
भूल जाती हूँ
कौन-सी तारीख है आज
और कौनसी यह सदी? और कौन-सी है सदी
लगता है जैसे फटे तंबू के भीतर
मैं एक नर्तकी हूँ छोटी-सी
छाया हूँ किसी दूसरे की
पागल हूँ दो अँधियारे चंद्रमाओं से घिरी।
मारीना त्स्वेतायेवा
अनुवाद – सरिता शर्मा