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बारिश की आस में जीती है वो
रोज़, थोड़ा-थोड़ा
मरती भी है
साँसें अटकाए रहती है हलक में कहीं
धड़कनें लटका लेती है
पत्तों के कोनों पर
जो चाहती हैं टपकना
और मिट्टी में मिल जाना,
जो जलती हैं दिनभर
और पसीजती हैं
फिर भी उसकी आस थामे
डटी रहती हैं
पत्तों के उन कोनों पर जिनमें फिसलन है
जिनमें उदासी की काई है,
नाउम्मीदी का दलदल बिछा है नीचे कहीं,
मगर फिर भी डूबती नहीं
न सूखती, न मरती
बस एक उम्मीद में चिपकाए रखती है
अपने अस्थि-पंजर उस ठूँठ से
जो सूख चुका है सालों पहले
मर चुका है जिसमें प्रेम और जीवन भी
उसमें जीवन की उम्मीद लिए
साधे रहती है उसे
उसके पौरुष को,
उसके निर्मोही “मैं” को,
और
बखूबी निभाती है अपने जीवन चरित्र
“प्रेम-बारिश” की आस में
“विष-बेल नारी” बनकर।
– अंकिता जैन
Very nice