सपनों की उधेड़बुन – ओम पुरोहित ‘कागद’

एक-एक कर उधड़ गए वे सारे सपने जिन्हें बुना था अपने ही ख़यालों में मान कर अपने ! सपनों के लिए चाहिए थी रात हम ने देख डाले खुली आँख दिन में सपने किया नहीं हम ने इंतज़ार सपनों वाली रात का इसलिए हमारे सपनों का एक सिरा रह जाता था कभी रात के कभी … Read more

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