पश्चिम में दो विचारक हुए हैं, लेंगे और विलियम जेम्स। उन्होंने एक सिद्धात विकसित किया था, जेम्स—लेंगे सिद्धांत। वह उलटी बात कहता है सिद्धांत, लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण। आमतौर से हम समझते हैं कि आदमी भयभीत होता है, इसलिए भागता है। जेम्स— लेंगे कहते हैं, भागता है, इसलिए भयभीत होता है। आमतौर से हम समझते हैं, आदमी प्रसन्न होता है, इसलिए हंसता है। जेम्स—लेंगे कहते हैं, हंसता है, इसलिए प्रसन्न होता है। और उनका कहना है कि अगर यह बात ठीक नहीं है, तो आप बिना हंसे प्रसन्न होकर बता दीजिए! या बिना भागे भयभीत होकर बता दीजिए!
उनकी बात भी सच है, आधी सच है। आधी आम आदमी की बात भी सच है।
असल में भय और भागना दो चीजें नहीं हैं। भय मन है और भागना शरीर है। प्रसन्नता और हंसी दो चीजें नहीं हैं। प्रसन्नता मन है और हंसी शरीर है। और शरीर और मन एक—दूसरे को तत्क्षण प्रभावित करते हैं, नहीं तो शराब पीकर आपका मन बेहोश नहीं होगा। शराब तो जाती है शरीर में, मन कैसे बेहोश होगा? शराब मजे से पीते रहिए। शरीर को नुकसान होगा, तो होगा। मन को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन मन तत्क्षण बेहोश हो जाता है। और जब आपका मन दुखी होता है, तो शरीर भी रुग्ण हो जाता है।
अब तो शरीरशास्त्री कहते हैं कि जब मन दुखी होता है, तो शरीर की रेसिस्टेंस, प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाती है। अगर मलेरिया के कीटाणु फैले हुए हैं, तो जो आदमी मन में दुखी है, उसको जल्दी पकड़ लेंगे, और जो मन में प्रसन्न है, उसको नहीं पकड़ेंगे।
आप जानकर हैरान होंगे कि प्लेग फैली हुई है, सबको पकड़ रही है, और डाक्टर दिन—रात प्लेग में काम कर रहा है, उसको नहीं पकड़ रही। कारण क्या है? डाक्टर अति प्रसन्न है अपने काम से। वह जो सेवा कर रहा है, उससे आनंदित है। उसे प्लेग कोई बीमारी नहीं है, एक प्रयोग है। उसे प्लेग जो है, वह कोई खतरा नहीं है, बल्कि एक चुनौती है, एक संघर्ष है, जिसमें वह जूझ रहा है। वह प्रसन्नचित्त है, वह आनंदित है, वह बीमार नहीं पड़ेगा। क्यों? क्योंकि शरीर की प्रतिरोधक शक्ति, रेसिस्टेंस, जब आप प्रसन्न होते हैं, तब ज्यादा होती है, जब आप दीन, दुखी, पीड़ित होते हैं भीतर, तो कम हो जाती है।
कीटाणु भी बीमारियों के आप पर तब तक हमला कर सकते, जब तक आप दरवाजा न दें, कि आओ, मैं तैयार हूं। और जब आप इतने प्रसन्नता से भरे होते हैं, तो चारों तरफ आपके एक आभा होती है, जिसमें कीटाणु प्रवेश नहीं कर सकते।
चौबीस घंटे में बीमारी पकड़ने के घंटे अलग हैं। और अब ‘ आदमी के भीतर की जो खोज होती है, उससे पता चलता है कि चौबीस घंटे में कुछ समय के लिए आप पीक आवर में होते हैं, शिखर पर होते हैं अपनी प्रसन्नता के। कोई क्षण में चौबीस घंटे में एक दफा आप बिलकुल नादिर, नीचे, आखिरी अवस्था में होते हैं। उस आखिरी अवस्था में ही बीमारी आसानी से पकड़ती है। और शिखर पर कभी बीमारी नहीं पकड़ती।
वह जो शिखर का क्षण है आपके भीतर प्रसन्नता का, वह शरीर और मन का एक ही है। वह जो खाई का क्षण है, वह भी एक ही है।
शरीर और मन जुड़े हैं। आप जब किसी के प्रति क्रोध से भरते हैं, तो आपकी मुट्ठियां भिंचने लगती हैं, और दांत बंद होने लगते हैं, और आंखें सुर्ख हो जाती हैं, और आपके शरीर में एड्रीनल और दूसरे तत्व फैलने लगते हैं खून में, जो जहर का काम करते हैं, जो आपको पागलपन से भरते हैं। अब आपका शरीर तैयार हो रहा है।
आपको पता है कि क्यों मुट्ठियां भिंचने लगती हैं? क्यों दांत कसमसाने लगते हैं? आदमी भी जानवर रहा है। और जानवर जब क्रोध से भरता है, तो नाखून से चीर—फाड़ डालता है, दांतों से काट डालता है। आदमी भी जानवर रहा है। उसके शरीर का ढंग तो अब भी जानवर का ही है। इसलिए दांत भिंचने लगते हैं, हाथ बंधने लगते हैं। और शरीर काम शुरू कर देता है, जहर खून में फैल जाता है कि अब आप किसी की हत्या कर सकते हैं। आपको पता है, क्रोध में आप इतना बड़ा पत्थर उठा सकते हैं जो आप शांति में कभी नहीं उठा सकते! क्योंकि आप पागल हैं। इस वक्त आप होश में नहीं हैं। इस वक्त कुछ भी हो सकता है।
जब क्रोध में ऐसा होता है, तो प्रेम में इससे उलटा होता है। जब आप प्रेम से भरते हैं तब आपको पता है, आप बिलकुल रिलैक्स हो जाते हैं, सारा शरीर शिथिल हो जाता है, जैसे शरीर को अब कोई भय नहीं है। क्रोध में शरीर तन जाता है, प्रेम में शिथिल हो जाता है। जब आप किसी के आलिंगन में होते हैं प्रेम से भरे हुए, तो आप छोटे बच्चे की तरह हो जाते हैं, जैसे वह अपनी मां की छाती से लगा हो— बिलकुल शिथिल, लुंज—पुंज। अब आपके शरीर में जैसे कोई तनाव नहीं है कहीं।
मन, शरीर, एक साथ बदलते चले जाते हैं। आप कभी तने रहकर प्रेम करने की कोशिश करें, तब आपको पता चल जाएगा। असंभव है। या कभी ढीले होकर क्रोध करने की कोशिश करें, तो पता चल जाएगा। असंभव है।
कभी आपने खयाल किया है कि जब आप किसी को अपमानित करना चाहते हैं, तो आपका मन होता है, निकालूं जूता और दे दूं सिर पर। मगर क्यों ऐसा होता है? और ऐसा एक मुल्क में नहीं होता, सारी दुनिया में होता है। एक जाति में नहीं होता, सब जातियों में होता है। एक धर्म में नहीं होता, सब धर्मों में होता है। दुनिया के किसी कोने में कितने ही सांस्कृतिक फर्क हों, लेकिन जब आप
किसी को अपमानित करना चाहते हैं, तो अपना जूता उसके सिर पर रखना चाहते हैं।
असल में जूता तो केवल सिंबल है। आप अपना पैर रखना चाहते हैं। लेकिन वह जरा अड़चन का काम है। किसी के सिर पर पैर रखना, जरा उपद्रव का काम है। उसके लिए काफी जिमनास्टिक, योगासन इत्यादि का अभ्यास चाहिए। एकदम से रखना आसान नहीं होगा, उसके लिए सर्कस का अनुभव चाहिए। तो फिर सिंबल का काम करते हैं। जूता सिंबल का काम करता है, कि हम जूते को सिर पर मार देते हैं। हम उससे यह कह रहे हैं कि तुम्हारा सिर हमारे पैर में! लेकिन क्या इसका मतलब है? सारी दुनिया में यह भाव एक—सा है।
इससे विपरीत श्रद्धा है, जब हम किसी के चरणों में सिर को रख देना चाहते हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि सारी दुनिया में अपमान करने के लिए सिर पर पैर रखने की भावना है, लेकिन सम्मान करने के लिए सिर्फ भारत में पैर पर सिर रखने की धारणा है। इस लिहाज से भारत की पकड़ गहरी है आदमी के मन के बाबत।
इसका यह मतलब हुआ कि सारी दुनिया में अपमान करने की व्यवस्था तो हमने खोज ली है, सम्मान करने की व्यवस्था नहीं खोज पाए। और अगर यह बात सच है कि हर मुल्क में हर आदमी को अपमान की हालत में ऐसा भाव उठता है, तो दूसरी बात भी सच होनी चाहिए कि श्रद्धा के क्षण में सिर को किसी के पैर में रख देने का भाव उठे। यह, भीतर जो घटना घटेगी, तभी!
इसका यह मतलब हुआ कि श्रद्धा को जितना हमने अनुभव किया है, संभवत: दुनिया में कोई मुल्क अनुभव नहीं किया। अगर अनुभव करता, तो यह प्रक्रिया घटित होती। क्योंकि अगर अनुभव करता, तो कोई उपाय खोजना पड़ता, जिससे श्रद्धा प्रकट हो सके। तो एक तो श्रद्धा की यह अभिव्यक्ति है क्षमा—याचना के लिए। अर्जुन कह रहा है कि सब भांति आपके चरणों में अपने शरीर को रखकर मांगता हूं माफी। मुझे माफ कर दें।
लेकिन इतनी ही बात नहीं है, थोड़ा भीतर प्रवेश करें। तो सिर जब किसी के चरणों में रखा जाता है……।
अभी जब बॉडी—इलेक्ट्रिसिटी पर काफी काम हो गया है, तो यह बात समझ में आ सकती है। आपको शायद अंदाज न हो, लेकिन उपयोगी होगा समझना। और इस संबंध में थोड़ी जानकारी लेनी आपके फायदे की होगी।
हर शरीर की गतिविधि विद्युत से चल रही है। आपका शरीर एक विद्युत—यंत्र है, उसमें विद्युत की तरंगें दौड़ रही हैं। आप एक बैटरी हैं, जिसमें विद्युत चल रही है, बहुत लो वोल्टेज की, बहुत कम शक्ति की। लेकिन बड़ा अदभुत यंत्र है कि उतने लो वोल्टेज से सारा काम चल रहा है।
ओशो – गीता दर्शन – भाग–5, – अध्याय—11
(प्रवचन—नौवां) — चरण—स्पर्श का विज्ञान