हो गई है पीर पर्वत-सी

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार

जन्म : 1 सितंबर 1933, राजपुर-नवादा, बिजनौर (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी

विधाएँ : नाटक ,कहानी,उपन्यास ,गजल, आलोचना, अनुवाद

काव्य संग्रह : सूर्य का स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का वसन्त।

काव्य नाटक : एक कण्ठ विषपायी

उपन्यास : छोटे-छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष, दुहरी जिंदगी

कहानी संग्रह : मन के कोण

नाटक : और मसीहा मर गया

गजल संग्रह : साये में धूप

निधन : 30 दिसंबर 1975

राहत ने जीवन और जगत के विभिन्न पहलुओं पर जो ग़ज़लें कही हैं, वो हिन्दी-उर्दू की शायरी के लिए एक नया दरवाज़ा खोलती है. नए रदीफ़, नै बहार, नए मजमून, नया शिल्प उनकी ग़ज़लों में जादू की तरह बिखरा है जो पढ़ने व् सुनने वाले सभी के दिलों पर च जाता है. – गोपालदास नीरज.

Ghazals

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