लिफाफा धूप का – कुमार शिव

किए जो प्रश्न मैंने सूर्य से
उनका मिला उत्तर
खुली खिड़की, लिफाफा धूप का
आकर गिरा भीतर।

अँधेरा कक्ष मेरा भर गया स्वर्णिम उजाले से
समय अभिभूत इतना था, नहीं सँभला सँभाले से
मैं था अनभिज्ञ अपनी ख्वाहिशों से और चाहत से
मैं था संतुष्ट अपने गाँव से, खपरैल की छत से
ठगा-सा रहा गया जब रश्मि-रथ
आया मेरे दर पर।

बहुत कठिनाइयाँ थीं, जिंदगी में दर्द बिखरे थे
कई टूटे हुए अक्षर खुली आँखों में उभरे थे
मगर था वक्त का अहसान मुझ पर, मैं बहुत खुश था
मैं क्यों परवाह करता फिर, कहाँ सुख था, कहाँ दुख था
उजाला ही उजाला था
मेरे भीतर, मेरे बाहर।

मुझे अफसोस है, मैंने किया जिसको तिरस्कृत है
सुबह कितनी मधुर है, धूप कितनी खूबसूरत है
खड़ी है रोशनी की अप्सरा जल की हवेली पर
लिखा है नाम मेहँदी से मेरा उसकी हथेली पर
झुकी मुझ पर
किए उसने मेरे होंठों पे हस्ताक्षर।

– कुमार शिव

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